आत्मप्रेम

अरे दिल प्रेम-नगर का अन्त न पाया ज्यो आया त्यो जावेगा

सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता या जीवन में क्या क्या बीता

सिर पाहन को बोझा लीता आगे कौन छुड़ावैगा

परली पार मेरा मीता खड़िया उस मिलने का ध्यान न धरिया

टूटी नाव उपर जो बैठा गाफिल गोता खावैगा

‘दास-कबीर’ कहै समुझाई अंतकाल तेरा कौन सहाई

चला अकेला संग न कोई कीया अपना पावैगा

~ Kabir Sahib